पहलगाम आतंकी हमले और उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर से लेकर भारतीय सैन्य और नागरिक ठिकानों को निशाना बनाने के पाकिस्तान के असफल प्रयासों तक, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के रवैये ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश की विश्वसनीयता पर भारी असर डाला है। हालांकि, अगर अमेरिका के इतिहास और वैश्विक राजनीति में उसकी मौजूदा रणनीति को समझें तो ट्रंप प्रशासन अपने देश की करतूतों पर पर्दा डालने की नाकाम कोशिश करता नजर आता है। क्योंकि, अब अमेरिका पहले जैसा एकमात्र शक्तिशाली राष्ट्र नहीं रहा और भारत की स्थिति भी वह नहीं रही जो कुछ दशक पहले थी। इसीलिए वह लगातार ऑपरेशन सिंदूर पर विपरीत बयान दे रहे हैं। पहलगाम हमले के बाद ट्रम्प ने जिस तरह का व्यवहार किया है, उससे अमेरिका के इरादे स्पष्ट हो गए हैं। हम यहां उनकी 5 बुराइयों के बारे में बात कर रहे हैं।
ऑपरेशन सिंदूर में भारत को बराबरी पर लाने की कोशिश भारत द्वारा ऑपरेशन सिंदूर की शुरुआत पहलगाम आतंकी हमले के अपराधियों को दंडित करने के उद्देश्य से की गई है। भारत अभी भी अपने इरादों और लक्ष्यों से विचलित नहीं हुआ है। हालाँकि, इस मामले में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प और उनके प्रशासन का रवैया शुरू से ही ढुलमुल रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ फोन पर हुई बातचीत पर अपनी पहली प्रतिक्रिया में ट्रम्प ने आतंकवाद के खिलाफ बेहद सख्त रुख दिखाया था। लेकिन, जब उन्होंने देखा कि भारत अपराधियों को दण्ड देने के प्रति सचमुच गंभीर है और ऐसा करता रहेगा, तो उन्होंने मिमियाना शुरू कर दिया। पहले तो उन्होंने कहा कि वह इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। फिर उन्होंने स्वयं ही युद्धविराम का श्रेय लेना शुरू कर दिया। आतंकवाद को अपनी राष्ट्रीय नीति के रूप में चलाने वाले पाकिस्तान और इससे पीड़ित भारत को एक ही तराजू पर तौलने का शर्मनाक प्रयास किया गया। जब भारत ने शीर्ष स्तर से यह सख्त संदेश दिया कि दोस्ती का मतलब उलुल जुलुल बातें करना नहीं है तो मध्यस्थता के दावे से भी पीछे हट गया। कुल मिलाकर अमेरिका नहीं चाहता कि भारत पाकिस्तान को उसके अपराधों की सजा दे, क्योंकि इससे अमेरिका के पिछले कुकर्मों की सच्चाई दुनिया के सामने आ सकती है।

पाकिस्तान को आतंकवाद का गढ़ बनाने में मदद की अमेरिका को पहली बार तब एहसास हुआ कि आतंकवाद कितना खतरनाक है जब अलकायदा के ओसामा बिन लादेन ने 9/11 को अंजाम दिया। पहले हथियार बेचने की तर्ज पर उन्होंने इसे अपनी नीति का हिस्सा बना लिया। इसका खुलासा पाकिस्तान ने पहलगाम हमले के बाद और ऑपरेशन सिंदूर शुरू होने से ठीक पहले किया था। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने कहा कि अमेरिका के लिए ‘हम 30 साल से गंदा काम कर रहे हैं और वह आतंकवादियों का मेजबान रहा है।’ उन्होंने यहां तक ​​कहा कि ‘गलतियां हमसे हुईं, लेकिन इसमें हमारे साथ अमेरिका और पश्चिमी देश भी शामिल हैं, जिन्होंने आतंकवादियों का छद्म रूप में इस्तेमाल किया।’ ट्रम्प के वर्तमान कार्यकाल में आतंकवाद पर अमेरिका की स्थिति इतनी दयनीय हो गई है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने सऊदी अरब में सीरिया के अंतरिम राष्ट्रपति अहमद अल-शरा से हाथ मिलाने में भी संकोच नहीं किया, जो कि अमेरिका का घोषित आतंकवादी है तथा उस पर उसने दस लाख डॉलर का इनाम भी घोषित कर रखा था। आज यह तथ्य है कि दुनिया में कहीं भी आतंकवाद है, पाकिस्तान उसका बहुत बड़ा लॉन्च पैड बन गया है। लादेन भी यहीं पाया गया था। शायद अमेरिका को लगता है कि जिस तरह से पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ने उसकी पोल खोलनी शुरू कर दी है, अगर उसने पाकिस्तान का साथ नहीं दिया तो उसके कई और गुनाह उजागर हो सकते हैं।
एक दुष्ट राष्ट्र का परमाणु कार्यक्रम मौन रहा 1998 में (11 और 13 मई) जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने परमाणु परीक्षण किया तो उसके कुछ दिनों बाद पाकिस्तान ने भी ऐसा ही परीक्षण करके दुनिया को चौंका दिया था। भारत का परीक्षण आश्चर्यजनक नहीं था। दुनिया जानती थी कि भारत इसके लिए सक्षम है, क्योंकि उसने 18 मई 1974 को अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था। 1990 का दशक वह दौर था जब पाकिस्तान पूरी तरह अमेरिका की गोद में था। वह अफगानिस्तान सहित खाड़ी देशों में अमेरिका की रणनीति में एक महान सहयोगी थे। यह बात पचने लायक नहीं है कि पाकिस्तान अमेरिकी जानकारी के बिना परमाणु शक्ति संपन्न बन गया। लेकिन, उसके बाद जब अपने ही देश में हीरो माने जाने वाले अब्दुल कादिर खान ने पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम के लिए दरवाजा खोला तो अमेरिका के पैरों तले जमीन खिसक गई। यह खुलासा हुआ कि उन्होंने अपनी प्रौद्योगिकी को ईरान, लीबिया और उत्तर कोरिया जैसे देशों में अवैध रूप से तस्करी किया था। 2004 में उन्हें दिखावे के लिए इस्लामाबाद में हिरासत में भी लिया गया था, लेकिन सच्चाई सामने आने के बाद भी अमेरिका ने ‘झूठ, धोखे और चोरी से परमाणु हथियार विकसित करने’ के लिए पाकिस्तान पर कोई सख्ती नहीं दिखाई। आज अगर पाकिस्तान, ईरान या उत्तर कोरिया परमाणु हमले की धमकी देते हैं तो इसके पीछे कहीं न कहीं अमेरिकी नीतियां ही जिम्मेदार हैं।

परमाणु हथियारों के प्रति आंखें मूंद लेने की पाकिस्तान की नीति ऐसा नहीं है कि अगर पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं तो उन्हें नियंत्रित करने के लिए कोई उपाय नहीं बचे हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जिस तरह से इसकी कमान अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) को सौंपने का सुझाव दिया है, वह असंभव नहीं है। ऑपरेशन सिंदूर से पहले और बाद में जिस तरह से पाकिस्तान द्वारा परमाणु ब्लैकमेलिंग की जा रही है, उससे यह साबित हो गया है कि वह पूरी तरह से दुष्ट राष्ट्र है, जिसका मानवता से कोई लेना-देना नहीं है और सबसे बढ़कर यह एक गैर-जिम्मेदार देश है जिसकी सेना आतंकवादी संगठनों की गोद में बैठी हुई है। इतना ही नहीं, हाल ही में पाकिस्तान से परमाणु रिसाव की खबर पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी खतरे की घंटी है। अभी भी अमेरिकी यदि वह चाहें तो पाकिस्तान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके कम से कम पाकिस्तानी परमाणु हथियारों के भंडार को भरोसेमंद हाथों में सौंप सकते हैं। हालांकि, अमेरिका की ओर से भारत के सुझाव पर चुप्पी इस बात का संकेत है कि जिस तरह से पाकिस्तानी सरकार के मंत्रियों ने अमेरिकी पोल खोलने का साहस दिखाना शुरू किया है, उससे अमेरिका के लिए इस मुद्दे पर और कुछ कहना मुश्किल हो गया है।
पाकिस्तानी करतूतों को जानते हुए भी हर संभव मदद अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने ऑपरेशन सिंदूर के बाद एक बार फिर पाकिस्तान को एक अरब डॉलर की सहायता मंजूर की है। जबकि, दुनिया जानती है कि पाकिस्तान ने हमेशा अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से प्राप्त धन का दुरुपयोग किया है। भारत ने आईएमएफ में भी इसका कड़ा विरोध किया है, क्योंकि वह जानता है कि पाकिस्तानी सेना के माध्यम से मिलने वाला धन अंततः आतंकवाद की नीति पर ही खर्च होने वाला है। अब अमेरिकी थिंक टैंक अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के सैन्य रणनीतिकार माइकल रुबिन ने इसके लिए अपनी ही सरकार की नीति पर सवाल उठाया है। उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तान को यह फंड देकर गलती की है। उनके अनुसार, यह ऐसे समय में किया गया है जब ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तान सरकार की नीति के तहत आतंकवाद को प्रायोजित कर रहा है। विश्व बैंक से प्राप्त धनराशि के बारे में भी इसी तरह के सवाल उठाए गए हैं। इन सभी संगठनों पर अमेरिका का प्रभुत्व है, लेकिन उसने पाकिस्तान को सुविधा देने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। शायद इसके पीछे कारण यह है कि अमेरिका को डर है कि अगर पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया तो वह पूरी तरह से चीन की गोद में जाकर बैठ जाएगा, वह अमेरिका के उन कारनामों का भी प्रचार करेगा, जिनके बल पर वह दुनिया का चौधरी बना हुआ है।